Jesus Hindi

भजन संहिता 74

 उत्पीड़कों से राहत के लिए प्रार्थना

आसाप का मश्कील

भजन संहिता 74

1 हे परमेश्वर, तू ने हमें क्यों सदा के लिये छोड़ दिया है? तेरी कोपाग्नि का धुआँ तेरी चराई की भेंड़ों के विरूद्ध क्यों उठ रहा है?

 

2 अपनी मण्डली को जिसे तू ने प्राचीनकाल में मोल लिया था, और अपने निज भाग का गोत्र होने के लिये छुड़ा लिया था, और इस सिय्योन पर्वत को भी, जिस पर तू ने वास किया था, स्मरण कर! (व्य. 32:9, यिर्म. 10;16, प्रेरि. 20:28)

 

3 अपने डग अनन्त खण्डहरों की ओर बढ़ा; अर्थात् उन सब बुराइयों की ओर जो शत्रु ने पवित्रस्थान में की हैं।

 

4 तेरे द्रोही तेरे पवित्रस्थान के बीच गर्जते रहे हैं; उन्होंने अपनी ही ध्वजाओं को चिन्ह ठहराया है। वे उन मनुष्यों के समान थे

 

5 जो घने वन के पेड़ों पर कुल्हाड़े चलाते हैं;

 

6 और अब वे उस भवन की नक्काशी को, कुल्हाड़ियों और हथौड़ों से बिल्कुल तोड़े डालते हैं।

 

7 उन्होंने तेरे पवित्रस्थान को आग में झोंक दिया है, और तेरे नाम के निवास को गिराकर अशुद्ध कर डाला है।

 

8 उन्होंने मन में कहा है, “हम इनको एकदम दबा दें;” उन्होंने इस देश में परमेश्वर के सब सभास्थानों को फूँक दिया है।

 

9 हम को हमारे निशान नहीं देख पड़ते; अब कोई नबी नहीं रहा, न हमारे बीच कोई जानता है कि कब तक यह दशा रहेगी।

 

10 हे परमेश्वर द्रोही कब तक नामधराई करता रहेगा? क्या शत्रु, तेरे नाम की निन्दा सदा करता रहेगा?

 

11 तू अपना दाहिना हाथ क्यों रोके रहता है? उसे अपने पाँजर से निकाल कर उनका अन्त कर दे।

 

12 परमेश्वर तो प्राचीनकाल से मेरा राजा है, वह पृथ्वी पर उद्धार के काम करता आया है।

 

13 तू ने तो अपनी शक्ति से समुद्र को दो भाग कर दिया; तू ने तो जल में मगरमच्छों के सिरों को फोड़ दिया।

 

14 तू ने तो लिब्यातानों के सिर टुकड़े-टुकड़े करके जंगली जन्तुओं को खिला दिए।

 

15 तू ने तो सोता खोलकर जल की धारा बहाई, तू ने तो बारहमासी नदियों को सुखा डाला।

 

16 दिन तेरा है रात भी तेरी है; सूर्य और चन्द्रमा को तू ने स्थिर किया है।

 

17 तू ने तो पृथ्वी की सब सीमाओं को ठहराया; धूपकाल और जाड़ा दोनों तू ने ठहराए हैं।

 

18 हे यहोवा, स्मरण कर कि शत्रु ने नामधराई की है, और मूर्ख लोगों ने तेरे नाम की निन्दा की है।

 

19 अपनी पिण्डुकी के प्राण को वनपशु के वश में न कर; अपने दीन जनों को सदा के लिये न भूल

 

20 अपनी वाचा की सुधि ले; क्योंकि देश के अंधेरे स्थान अत्याचार के घरों से भरपूर हैं।

 

21 पिसे हुए जन को निरादर होकर लौटना न पड़े; दीन और दरिद्र लोग तेरे नाम की स्तुति करने पाएँ। (भजन. 103:6)

 

22 हे परमेश्वर, उठ, अपना मुकद्दमा आप ही लड़; तेरी जो नामधराई मूर्ख द्वारा दिन भर होती रहती है, उसे स्मरण कर।

 

23 अपने द्रोहियों का बड़ा बोल न भूल, तेरे विरोधियों का कोलाहल तो निरन्तर उठता रहता है।

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